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मैं नास्तिक क्यों हूँ: भाग 1

Why I Am An Atheist ? का हिन्दी अनुवाद

अमर शहीद भगत सिंह का जन्म एक सिख परिवार में हुआ जो आर्यसमाज में आस्था रखता था| कच्ची उम्र में ही भगत भारत के स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े थे| क्रांतिकारी विचारधारा के| शहीद भगत सिंह ने अपने आखरी दिनों में जेल में समय का सदुपयोग करते हुए ईश्वर तथा नास्तिकता पर अपने विचार व्यक्त किए थे, कुछ लोगों का खयाल है कि लेनिन, कार्ल मार्क्स के बारे में पढने व इनके साहित्य से प्रभावित हो कर उन्होने यह विचार लिखे है पर शायद यह पूरा सच नही है... आपका क्या विचार है इस लेख को पढ़ कर प्रतिक्रिया दें -

प्रत्येक मनुष्य को, जो विकास के लिए खड़ा है, रूढ़िगत विश्वासों के हर पहलू की आलोचना तथा उन पर अविश्वास करना होगा और उनको चुनौती देनी होगी। प्रत्येक प्रचलित मत की हर बात को हर कोने से तर्क की कसौटी पर कसना होगा। यदि काफ़ी तर्क के बाद भी वह किसी सिद्धांत या दर्शन के प्रति प्रेरित होता है, तो उसके विश्वास का स्वागत है।

उसका तर्क असत्य, भ्रमित या छलावा और कभी-कभी मिथ्या हो सकता है। लेकिन उसको सुधारा जा सकता है क्योंकि विवेक उसके जीवन का दिशा-सूचक है।

लेकिन निरा विश्वास और अंधविश्वास ख़तरनाक है। यह मस्तिष्क को मूढ़ और मनुष्य को प्रतिक्रियावादी बना देता है। जो मनुष्य यथार्थवादी होने का दावा करता है उसे समस्त प्राचीन विश्वासों को चुनौती देनी होगी। यदि वे तर्क का प्रहार न सह सके तो टुकड़े-टुकड़े होकर गिर पड़ेंगे। तब उस व्यक्ति का पहला काम होगा, तमाम पुराने विश्वासों को धराशायी करके नए दर्शन की स्थापना के लिए जगह साफ करना।

यह तो नकारात्मक पक्ष हुआ। इसके बाद सही कार्य शुरू होगा, जिसमें पुनर्निर्माण के लिए पुराने विश्वासों की कुछ बातों का प्रयोग किया जा सकता है।

जहाँ तक मेरा संबंध है, मैं शुरू से ही मानता हूँ कि इस दिशा में मैं अभी कोई विशेष अध्ययन नहीं कर पाया हूँ।

एशियाई दर्शन को पढ़ने की मेरी बड़ी लालसा थी पर ऐसा करने का मुझे कोई संयोग या अवसर नहीं मिला। लेकिन जहाँ तक इस विवाद के नकारात्मक पक्ष की बात है, मैं प्राचीन विश्वासों के ठोसपन पर प्रश्न उठाने के संबंध में आश्वस्त हूँ।

मुझे पूरा विश्वास है कि एक चेतन, परम-आत्मा का, जो कि प्रकृति की गति का दिग्दर्शन एवं संचालन करती है, कोई अस्तित्व नहीं है। समस्त प्रगति का ध्येय मनुष्य द्वारा, अपनी सेवा के लिए, प्रकृति पर विजय पाना है। इसको दिशा देने के लिए पीछे कोई चेतन शक्ति नहीं है। यही हमारा दर्शन है।

जहाँ तक नकारात्मक पहलू की बात है, हम आस्तिकों से कुछ प्रश्न करना चाहते हैं-

(i) यदि, जैसा कि आपका विश्वास है, एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक एवं सर्वज्ञानी ईश्वर है जिसने कि पृथ्वी या विश्व की रचना की, तो कृपा करके मुझे यह बताएं कि उसने यह रचना क्यों की?

कष्टों और आफतों से भरी इस दुनिया में असंख्य दुखों के शाश्वत और अनंत गठबंधनों से ग्रसित एक भी प्राणी पूरी तरह सुखी नहीं। कृपया, यह न कहें कि यही उसका नियम है। यदि वह किसी नियम में बँधा है तो वह सर्वशक्तिमान नहीं। फिर तो वह भी हमारी ही तरह गुलाम है।

कृपा करके यह भी न कहें कि यह उसका शग़ल है। नीरो ने सिर्फ एक रोम जलाकर राख किया था। उसने चंद लोगों की हत्या की थी। उसने तो बहुत थोड़ा दुख पैदा किया, अपने शौक और मनोरंजन के लिए। और उसका इतिहास में क्या स्थान है? उसे इतिहासकार किस नाम से बुलाते हैं?

सभी विषैले विशेषण उस पर बरसाए जाते हैं। जालिम, निर्दयी, शैतान-जैसे शब्दों से नीरो की भर्त्सना में पृष्ठ-के पृष्ठ रंगे पड़े हैं। एक चंगेज़ खाँ ने अपने आनंद के लिए कुछ हजार ज़ानें ले लीं और आज हम उसके नाम से घृणा करते हैं।

तब फिर तुम उस सर्वशक्तिमान अनंत नीरो को जो हर दिन, हर घंटे और हर मिनट असंख्य दुख देता रहा है और अभी भी दे रहा है, किस तरह न्यायोचित ठहराते हो?

फिर तुम उसके उन दुष्कर्मों की हिमायत कैसे करोगे, जो हर पल चंगेज़ के दुष्कर्मों को भी मात दिए जा रहे हैं? मैं पूछता हूँ कि उसने यह दुनिया बनाई ही क्यों थी-ऐसी दुनिया जो सचमुच का नर्क है, अनंत और गहन वेदना का घर है?

सर्वशक्तिमान ने मनुष्य का सृजन क्यों किया जबकि उसके पास मनुष्य का सृजन न करने की ताक़त थी?

इन सब बातों का तुम्हारे पास क्या जवाब है? तुम यह कहोगे कि यह सब अगले जन्म में, इन निर्दोष कष्ट सहने वालों को पुरस्कार और ग़लती करने वालों को दंड देने के लिए हो रहा है।

ठीक है, ठीक है। तुम कब तक उस व्यक्ति को उचित ठहराते रहोगे जो हमारे शरीर को जख्मी करने का साहस इसलिए करता है कि बाद में इस पर बहुत कोमल तथा आरामदायक मलहम लगाएगा?

ग्लैडिएटर संस्था के व्यवस्थापकों तथा सहायकों का यह काम कहाँ तक उचित था कि एक भूखे-खूँख्वार शेर के सामने मनुष्य को फेंक दो कि यदि वह उस जंगली जानवर से बचकर अपनी जान बचा लेता है तो उसकी खूब देख-भाल की जाएगी?

इसलिए मैं पूछता हूँ, ‘‘उस परम चेतन और सर्वोच्च सत्ता ने इस विश्व और उसमें मनुष्यों का सृजन क्यों किया? आनंद लुटने के लिए? तब उसमें और नीरो में क्या फर्क है?’’

(क्रमशः) ....................

प्रतिक्रियाएँ

Re: मैं नास्तिक क्यों हूँ: भाग 1
बहुत खूब। मैं भगत सिंह का भगत हूँ। मुझे ऐसे लोग बहुत पसंद हैं जो इस बात कि घोषणा कर दे कि '''ईश्वर मारा जा चुका है और अब आदमी स्वतंत्र है''। सर्वप्रथम यह वाक्य नित्से ने कहा था- 'दि स्पेक ऑफ जरथुस्त्र' में। मैं मानता हूँ कि भगतसिंह ने खुद का एक नया दर्शन घढ़ा था जिसमें वे सारी बेवकुफियाँ नहीं है ‍जो प्राचीन और मध्ययुगीन खोफ और अधिनायकवाद से जन्मी हो और वह भी नहीं जो आधुनिक युग की अतिबौद्धिकता का परिणाम हो। कहते हैं कि विश्वास करना अर्थात विचार की हत्या करना है। भगत सिंह ने अपने विचार की कभी हत्या नहीं होने दी।
Re: मैं नास्तिक क्यों हूँ: भाग 1
धन्यवाद। बहुत दिनों से इच्छा थी इसे पढ़ने की। अगली कड़ी की प्रतीक्षा...
Re: मैं नास्तिक क्यों हूँ: भाग 1
Indian major community, religious people still think it is a sin to be an atheist. He could have been extremely bold when he announced that he was an atheist, at that time. He was barely 23 years when he wrote this book. He wrote this book in his own mother tongue, Gurmukhi. A few days later, British Government hanged him. Thanks for this Hindi translation, Sandeep!
Re: मैं नास्तिक क्यों हूँ: भाग 1
मेरे ख्‍याल से उन्‍होंने इस सृष्टि की रचना हमें जीना सिखाने के लिए की. जीवन सिर्फ आनंद लूटना नहीं है, यह कष्‍ट सहना भी है, चिंतित होना भी है, मुस्‍कुराना भी है, सोचना भी है, विरोध करना भी है. ईश्‍वर ने खुद कभी राम, कभी कृष्‍ण, कभी ईसा, कभी नानक साहव तो कभी पैगंबर बनकर जि़दगी जीने के तरीकों से रूबरू कराया है. वो खुद भी उदाहरण बना है. वह ईश्‍वर है इसलिए ही उसने इस सृष्टि की रचना की है. ईश्‍वर सृजक है. वो है विचार रूप में, विश्‍वास रूप में, श्रद्धा रूप में, प्रेरणा रूप में, और शायद स्‍वतंत्रता के रूप में भी जो हमें भगत सिंह के प्रयासों से मिली.
Re: मैं नास्तिक क्यों हूँ: भाग 1
ईश्वर का अस्तित्व एक ऐसा विवादास्पद प्रश्न है, जिसके पक्ष और विपक्ष में एक से एक ज़ोरदार तर्क-वितर्क दिए जा सकते हैं. तर्क से सिद्ध हो जाने पर न तो किसी का अस्तित्व प्रमाणित हो जाता है और ‘सिद्ध’ न होने पर किसी का अस्तित्व अप्रमाणित भी नहीं होता. ईश्वर की सत्ता में विश्वास उसकी नियम व्यवस्था के प्रति निष्ठा और आदर्शों के प्रति आस्था में फलित होता है, उसी का नाम आस्तिकता है. वैसे तो कई लोग स्वयं को ईश्वर विश्वासी मानते बताते हैं, फिर भी उनमें आदर्शों व नैतिक मूल्यों के प्रति आस्था का अभाव होता है। ऐसी छद्म आस्तिकता के कारण ही ईश्वर के अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लगता है. नास्तिकतावादी दर्शन द्वारा ईश्वर के अस्तित्व को मिथ्या सिद्ध करने के लिए जो तर्क दिए व सिद्धांत प्रतिपादित किए जाते हैं, वे इसी छद्म नास्तिकता पर आधारित हैं. अब मैं सीधे नीत्से की बात पर आता हूँ. उसने अनीश्वरवाद का नारा बुलंद किया और जनमानस पर से ईश्वरवाद की छाया उतार फेंकने के लिए तर्कशास्त्र और भवुकता का खुलकर प्रयोग किया. उसने अपने उद्बोधनों में कहा ‘ईश्वर की सत्ता मर गई, उसे दिमाग से निकाल फेंकों, नहीं तो शरीर पूरी तरह गल जाएगा। स्वयं को ईश्वर के अभाव में जीवित रखने का अभ्यास डालो। अपने पैरों पर खड़े होओ। अपनी उन्नति आप करो और अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं तलाशो। उसने तो यहाँ तक कहा कि वस्तुस्थिति की उपेक्षा कर, कल्पना के आकाश में उड़ोगे, तो तुम्हारा भी वही हाल होगा, जो ईश्वर का हुआ है। लेकिन नीत्से की विचारधारा क्रमशः अधिकाधिक गंभीरतापूर्वक यह स्वीकार करती ही चली गई कि ईश्वर भले ही मर गया हो, पर स्थान रिक्त होने से जो शून्यता उत्पन्न होगी, उसे सहज ही न भरा जा सकेगा। उद्देश्य, आदर्श और नियंत्रण हट जाने से मनुष्य जो कर गुजरेगा वह ईश्वरवादी भ्रांतियों की अपेक्षा दुःखदायी ही सिद्ध होगा। प्रकारांतर से उसने यही माना कि जो कुछ भी उसने कहा वो सब उसके विचारों या 'स्वर्ग' में ही खरा उतरेगा. इस संसार को ईश्वर के भरोसे चलने दो इसी में भलाई है. नास्तिकता (Atheism) अपने आप में एक अलग तरह के बुद्धिवाद के सिवा कुछ नहीं है.
Re: मैं नास्तिक क्यों हूँ: भाग 1
भगत सिंह ने कहा था कि मुझे पूरा विश्वास है कि एक चेतन, परम-आत्मा का, जो कि प्रकृति की गति का दिग्दर्शन एवं संचालन करती है, कोई अस्तित्व नहीं है।-- यह बात उन्होंने दृड़ता से कही थी इसका मतलब यह है कि उन्होंने दुनिया के सारे दर्शन का अध्ययन किया है और वह भलीभाँति जानते हैं कि विश्वास और विचार दोनों ही तरह की बेवकुफियों से भवष्यि में मुक्त होना होगा तभी मानव आगे विकास कर पाएँगा। पांडेजी ईश्वर के होने या न होने की बात अव्याकृत प्रश्नों के अंतरगत आती है जो व्याकरण सम्मत नहीं है। उपनिषद और धम्मपद में 12 तरह के अव्याकृत प्रश्नों की चर्चा की गई है जो ऐसे प्रश्न है जिनका कोई हल नहीं है और जिनसे जीवन सुखी नहीं दुखी ही होता है। इस प्रश्नों पर बहस या चर्चा करना उर्जा को व्यर्थ में व्यय करना है। सवाल यह है कि क्या भगतसिंह मार्क्सवादी थे तो उत्तर यह है कि नहीं थे लेकिन मार्क्सवादी उनसे प्रेम करते हैं तो इसमें कोई हर्ज नहीं और वे मार्क्सवादी थे भी तो आज के नकली मार्क्सवादियों की तरह नहीं थे सचमुच ही उन्हें मानवता और सामाजिक असमानता की चिंता थी। नास्तिकता बुद्धिवाद नहीं आस्तिक होने की राइट शुरुआत हैं। समझे।
Re: मैं नास्तिक क्यों हूँ: भाग 1
संदीपजी, आपकी यह प्रस्तुति उस समय और भी जरूरी तथा प्रांसगिक है जब हमारे चारों तरफ अंधविश्वासों, अंध श्रद्धाअों, अंध आस्थाअों का दौर अपने चरम पर है। आपकी यह प्रस्तुति मुझे इसलिए भी बहुत महत्वपूर्ण लगती है कि हमारा देश जैसे जैसे विकास की नई और चमकीली इबारतें लिख रहा है वैसे वैसे इस विकास का भरपूर लाभ लुटते उच्च और मध्यमवर्ग तरह तरह के अंधविश्वासों और अंध श्रद्धाअों में बुरी तरह फंसता चला जा रहा है। तमाम तरह के संचार माध्यम आज अंधविश्वास और अंध आस्था फैलाने में लगे हैं। इससे एक तरफ धर्म का आडंबर बढ़ता जा रहा है तो दूसरी तरफ असहिष्णुता भी। ये सब हमारे आधुनिक जीवन की नई विसंगतियां हैं। भगतसिंह का यह लेख इन्हीं पर रोशनी फेंकता है।
Re: मैं नास्तिक क्यों हूँ: भाग 1
(१) इश्वर से प्रश्न पूछने से पहले आप ये जान ले की इश्वर कौन हैं? इश्वर आप मैं हम में समाया हुआ हैं, ये दुनिया बनाईं ही गई थी इसलिए की इश्वर जो हमारे और आप के अंदर बैठा है जान सके की सच्चा पयार क्या हैं? आनंद क्या हैं इसको समुझने के लिए ये जानना परम आवश्यक हैं की दुःख क्या हैं? (२)इश्वार आपसे और हम सबसे प्रेम करता हैं, एक माता अगर अपने पुत्र को गलती करने पर दंड देती हैं तो इसका मतलब ये तो नही की बच्चे के रोने पर माँ को आनंद मिलता हैं! बच्चे के रोने से माँ को दुःख ही होता हैं उसी तरह हम अबोध हैं इश्वर के लिए, इश्वर की संतान हैं हम और इश्वर तक पहुचना ही हमारा धयेय हैं, इश्वर हमारे अन्दर हैं लेकिन बाह्य सहायता के बिना उस तक पहुचना बड़ा मुश्किल हैं इसलिए देवी देवताओं की रचना की गई ताकि आत्म केंद्रित हीन से पहले हम बाह्य साधनों के माध्यम से केंद्रित होना सिख ले, जीवन सिर्फ़ और सिर्फ़ आनद के लिए हैं, ये आप पर निर्भर करता हैं की आप परपीडा मैं आनंद खोजते हैं या पर सेवा मैं, परन्तु आप के अंदर तो इश्वर स्वयं विद्यमान हैं तो ये परायेपन का अस्तित्व ही कहा हैं? सब कुछ आपका अपना हैं, आपका स्वयं बनाया हुआ! आप इसे त्याग भी दोगे/सताओगे भी तो भी ये आपको नही छोड़ सकता (३) इश्वार को समझना ही इश्वार की प्राप्ति हैं, परन्तु आप हमारा मस्तिष्क क्या इतना विकसीत हो चुका हैं की उसे पुरी तरह समझ सके? जरा ध्यान से सोचो पृथ्वी के आकार से अपने आकर की तुलना करो. पृत्वी के आकार के आगे ही तुम्हारा अकार नगण्य हैं, जिसका की अपना आकार सूर्य के आगे नगण्य हैं, सूर्य का आकार आकाशगंगा के आगे नगण्य हैं और आकाश गंगा का आकार ब्रम्हांड के आगे नगण्य हैं तो उस इश्वर का आकार जिसके लिए ब्रहमांड अंडे के सम्मान सुक्ष्म हैं तो उसका आकार की तो कल्पना भी आपके लिए लगभग असंभव सी हैं, और आप उसकी की प्रकृति के बारे मैं प्रश्न करते हैं? उसे पुरी तरह समझाने की क्षमता मुझमे नही हैं यदि आप मैं हैं तो कीजिये प्रश्न, क्योंकि प्रश्नों मैं कोई बुराई नही हैं. (४)भगतसिंह एक महान क्रांतिकारी थे और अपनी मात्रभूमि को बन्धनों मैं जकडा देख कर विचलित थे. और इसी विचलित अवस्था मैं ये प्रश्न कर रहे थे, यदि इश्वर पर उन्हें इतनी ही अनास्था थी तो क्यो दिया बलिदान, वास्तव मैं हमारे अनतर्मन मैं बैठा इश्वार ही हमें प्रेरित करता हैं की ये पुरी दुनिया तुम्हारे आसपास के लोग ये तुम्हारे अपने हैं तुम सिर्फ़ आपने भोतिक शरीर तक सिमित नही रह सकते. अब प्रश्न ये उठता हैं की जब सभी अपने हो तो फिर परिश्रम क्यों, लेकिन याद रखे की गांधीजी ने आपने जीवन के द्वारा ये सिध्ध किया हैं की कोई कितना भी बड़ा आततायी क्यों न हों उसका अन्तर्मन भी अत्याचार को धिक्कारता हैं करूणा जगाता हैं. इसका मतलब ये हैं की भारतभूमि पर अत्याचार करने वाले अंग्रेज भी सुखी नही थे, सुख अगर आप सिर्फ़ भोतिक संपदा मैं खोजते हैं तो मैं आपसे कोई तर्क नही कर सकता परन्तु मेरे हिसाब से सुख सम्पदा मैं नही संतुष्टि मैं हैं, मन की शान्ती मैं हैं, जो भगतसिंह ने किया वह इस बात से प्रेरित था की अंग्रेज और भारतवासी दोनों दुखी थे. मैं आशा करता हूँ की आप इश्वर को नकारना बंद कर देंगे समय मिलाने पर इस बात की चर्चा जरुर करना चाहूँगा की आध्यात्मिक दृष्टि से भी हिन्दुस्तान का गुलाम होना भी बस एक जीवन चक्र का हिस्सा था इस समय मेरा kaam मुझे बुला रहा हैं आज्ञा दीजिये आपका निलेश
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